शनिवार, 1 अप्रैल 2017

उम्मीदों का फटा पैरहन,
रोज़-रोज़ सिलना पड़ता है,
तुम से मिलने की कोशिश में,
किस-किस से मिलना पड़ता है....

फ़लक पे भोर की दुल्हन यूँ सज के आई है,
ये दिन उगा है या सूरज के घर सगाई है, 
अभी भी आते हैं आँसू मेरी कहानी में, 
कलम में शुक्र-ए- खुदा है कि 'रौशनाई' है..... 

घर से निकला हूँ तो निकला है घर भी साथ मेरे,
देखना ये है कि मंज़िल पे कौन पहुँचेगा ?
मेरी कश्ती में भँवर बाँध के दुनिया ख़ुश है,
दुनिया देखेगी कि साहिल पे कौन पहुँचेगा....

उसी की तरहा मुझे सारा ज़माना चाहे 
वो मेरा होने से ज्यादा मुझे पाना चाहे 
मेरी पलकों से फिसल जाता है चेहरा तेरा 
ये मुसाफिर तो कोई ठिकाना चाहे

हिम्मत ए रौशनी बढ़ जाती है,
हम चिरागों की इन हवाओं से,
कोई तो जा के बता दे उस को,
चैन बढता है बद्दुआओं से...

क़लम को खून में खुद के डुबोता हूँ तो हंगामा, 
गिरेबां अपना आँसू में भिगोता हूँ तो हंगामा, 
नहीं मुझ पर भी जो खुद की ख़बर वो है ज़माने पर, 
मैं हँसता हूँ तो हंगामा, मैं रोता हूँ तो हंगामा...

तुम अमर राग-माला बनो तो सही,
एक पावन शिवाला बनो तो सही,
लोग पढ़ लेंगे तुम से सबक प्यार का,
प्रीत की पाठशाला बनो तो सही...

बदलने को तो इन आखोँ के मंज़र कम नहीं बदले ,
तुम्हारी याद के मौसम,हमारे ग़म नहीं बदले ,
तुम अगले जन्म में हम से मिलोगी,तब तो मानोगी ,
ज़माने और सदी की इस बदल में हम नहीं बदले.......

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