रविवार, 17 मार्च 2019

!!भजन!! 
चाह पैसों से आनों में आती रही
चाह आनों से रुपया बनाती रही
चाह रुपयों से नोट भुनाती रही
चाह नोटों से कोठी चुनाती रही
चाह कोठी में मोटर मंगाती रही
चाह मोटर से होटल में जाती रही
चाह होटल में बोतल खुलाती रही
चाहा क्या - क्या न करती कराती रही
अरे चाह पा ली जिन्होंने वो पीले हुए
चाह छोड़ी जिन्होंने रसीले हुए
चाह "जर" से लगी जी जरा हो गया
चाह "हरी" से लगी जी हरा हो गया
चाह उनकी हरदम हमको चाहिए
और वो अगर चाहे तो हम को क्या चाहिए।।

गैर मुमकिन है कि दुनिया अपनी मस्ती छोड़ दे
इसलिए ए-दिल तू ही बेकार की बस्ती छोड़ दे,
खूब तरसाया है तेरी ख्वाहिश ने तुझे
तू ही ख्वाहिशों को कुछ तरसती छोड़ दे।।

 *महाराज श्री स्वामी राजेश्वरानंन्द जी के श्रीमुख से*

1 टिप्पणी:

  1. यह परमपूज्य साकेत वासी श्री विंदु जी महाराज का पद है,जिसे स्वर्गीय राजेस्वरानंद जी सरस्वती अपने प्रवचनों में सुनाया करते थे।

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