गुरुवार, 1 अक्टूबर 2015


हैरान हूँ अपने सब्र का पैमाना देखकर
मैं उसे याद करता हूँ जो मुझे भूल गया
मैं उसे प्यार करता हूँ जो मुझसे नफरत करने लगा
उसकी फिक्र है जिसकी जुबाँ पे मेरा जिक्र नहीं
शायद मेरी वफाओं का यही सिला है
मैं उसके बारे में सोचता हूँ जिसने मुझे ज़हन से निकाल दिया
मैं उसे देखना चाहता हूँ जो मुझे देख के अनदेखा कर रहा है
शायद महोब्बत की दुनिया का ये दस्तूर हो गया है
जिसको दिल से चाहा वो ही दिल से दूर हो गया है
उसको खुद से ज्यादा चाहना ही मेरा कसूर हो गया है
सोचा था कोई शिकवा ना करूँगा पर दिल कहने को मजबूर हो गया है
हम्म एक गीत सहसा याद आगया
चाहूँगा तुझको साँझ सवेरे
फिर भी कभी अब नाम को तेरे
आवाज मैं ना दूँगा
आवाज मैं ना दूँगा

Betiyan


पापा के बगिया की चिङी होती हैं बेटियाँ
कभी मासूम कभी नकचङी होती हैं बेटियाँ
दुखता है कभी सिर तो सहलाती हैं प्यार से
लगाती हैं बाम मुझको इतनी बङी होती हैं बेटियाँ
आता हूँ थककर जब भी शाम को दुकान से
मेरे इंतजार में गेट पे खङी होती हैं बेटियाँ
देखके इनका चेहरा भूल जाता हूँ अपना हर गम
जादू की कोई जैसे छङी होती हैं बेटियाँ
जब बूढा बाप होस्पीटल में हो
तो शेर की बानगी महसूस कीजिए
बेटा चार किलोमीटर से पता लेने नहीं आया
और चार सौ किलोमीटर से सिराहने खङी होती हैं बेटियाँ
ये मेरी गजल बेटियाँ दुनिया की हर बेटी की नज़र